चैत्र मास के साथ-साथ गर्मियां भी शुरू होने लगती है और उत्तराखंड के पहाड़ी इलाको मै मौसमी फल पकने शुरू हो जाते है। उन्हीं मौसमी फलों में से एक फल है “काफल”। पहाड़ के लोग चैत्र मास में काफल पकने का बेसब्री से इंतजार करते हैं। चटक लाल रंग का यह छोटा सा फल अपने स्वाद व रसीलेपन के कारण स्थानीय लोगों और पर्यटकों को खासे लुभाते है। पहाड़ मै यह फल कई लोगों के रोजगार का एक साधन भी है। जूही धूप ज्यादा होने लगती है तो गर्म लू की वजह से कुम्हला कर काफल थोड़े कम हो जाते है। और शाम को ठंडी व नम हवा के कारण फिर से खिल जाते है।
उत्तराखण्ड मै “काफल” से जुड़ी एक काफी पुरानी लोककथा है:-
उत्तराखंड के किसी गांव में एक विधवा औरत और उसकी एक छोटी बेटी रहती थी। गरीबी की वजह से किसी तरह दोनों अपना गुजर बसर करते थे। वही हर दिन की तरह माँ सवेरे उठ के जंगल में घास के लिए गई। जंगल में काफल पकने के कारण घास लेकर लौटने समय माँ ने “काफल” के बहुत सारे दाने भी तोड़कर अपने पल्लू पर बान्धकर घर ले आयी। जब बेटी ने काफल देखे, तो उसकी खुशी का ठिकाना न रहा।
पहाडो मै बैसाख मास से गेहूं की कटाई शुरू हो जाती हैं…….!!!
माँ ने बेटी से कहा कि “मैं खेत में गेहूँ की फसल काटने जा रही हूँ” जब शाम को लौटूंगी, तब दोनों मिलकर काफल खाएंगे। और माँ ने काफलों को टोकरी में रखकर कपड़े से ढक दिया। और खेत मै काम करने चले गई।
वही बेटी दिनभर घर पर यही सोचती रही की कब माँ घर आयगी और कब मै काफल खाऊँगी।
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वह बार-बार उस टोकरी के ऊपर रखे कपड़े को उठाकर देखती रही और काफल के खट्टे-मीठे रसीले स्वाद की कल्पना करती, लेकिन उसने अपनी माँ की आज्ञा मानते हुए एक भी काफल का दाना तक नहीं चखा। और सोचती रही, जब माँ आ जाऐगी, तो साथ मिलकर खाएंगे।
वही दिनभर धूप मै कड़ी मेहनत करने के बाद जब माँ शाम को घर लौटी, तो बच्ची दौड़ते हुए माँ के पास गई और बोली- “माँ…माँ…अब हम काफल खाएं क्या”???
माँ बोली- “थोडा आराम करने दे छोरी….फिर खा लेंगे”!!!
कुछ समय बाद जैसे ही माँ ने काफल की टोकरी निकाली और उसका कपड़ा हटाया, तो बेटी की ओर देखते हुए पूछा, “अरे ! ये क्या? काफल कम कैसे हुए? तूने खाये क्या?”
वही बेटी ने करुण आवाज मै जवाब दिया “नहीं माँ, मैंने तो अभी तक काफल का एक भी दाना नहीं चखा…..”
दिनभर धूप मै काम करने, भूख और थकान से माँ का दिमाग पहले ही गर्म हो रखा था। तो माँ को बच्ची की सब बाते झूठी समझकर गुस्सा आ गया। इतने मै माँ ने बच्ची को ज़ोर से एक झांपड़ दे मारा। उस अप्रत्याशित वार से बच्ची नीचे गिरी और उसका सर पत्थर में जा लगा…और बच्ची के यह कहते हुए प्राण पखेरू उड़ गए कि….“मैंने नहीं चखे माँ”
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जब माँ का क्षणिक आक्रोश उतरा और वह होश में आई, तो उसे अपने किए पर पछतावा करते हुए बच्ची को गोद में लेकर बिलाप करने लगी… “मुझसे ये क्या हो गया”
वह बच्ची ही तो उस दुखियारी माँ का एक मात्र सहारा थी। माँ बिलाप करते हुए बोली “हाय, मैंने उसे अपने ही हाथो से खत्म कर दिया! वो भी कुछ तुच्छ काफलो के खातिर! आखिर लायी उसी बेटी के लिये ही तो थी.. तो क्या हुआ था जो उसने थोड़े खा भी लिए थे” बेटी को गोद मै लिए रातभर उसकी याद में बिलखती-तड़पती रही।
वही दरअसल जेठ की गर्म लू की वजह से कुम्हला कर काफल थोड़े कम हो गए थे। रातभर बाहर ठंडी व नम हवा में पड़े रहने के कारण सुबह फिर से खिल गए और टोकरी फिर से पूरी भरी दिखी। अब माँ की समझ में आ गया और वह रोती-बिलखती, अपनी छाती पीटते हुई मर गयी।
लोककथा हैं कि मृत्यु के बाद उन दोनों ने दो पक्षियों के रूप में नया जन्म लिया। और… जब भी हर साल गर्मियों में “काफल” पकते हैं, तो वही मां एक पक्षी के रूप में बड़े करुण भाव से गाती है, “काफल पाको….”
दूसरा पक्षी गाता है- “मैं नी चाखो” (मैंने नहीं चखे हैं)
फिर पक्षी की चीत्कार उठती है “पुर पुतई पूर पूर” (पूरे हैं बेटी पूरे हैं)……!!!!!
आज भी जब पहाड़ों में चैत्र मास से आषाढ़ मास जब भी रात या दिन में ये पक्षी गाते हैं, तो यह कहानी याद आ जाती है!