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अब पहाड़ का बुरांश देगा कोरोना को मात… वैज्ञानिकों के हाथ लगी ये बड़ी सफलता

भारत में कोरोना के मामले इन दिनों फिर तेजी से बढ़ रहे हैं। ऐसे में मास्क पहनने, सामाजिक दूरी बरकरार रखने और वैक्सीन लगवाने को ही संक्रमण से बचने का उपाय माना जा रहा है, लेकिन जल्द ही कोरोना की एक ऐसी दवा आ सकती है, जो कोरोना मरीजों के लिए किसी संजीवनी बूटी से कम नहीं होगी। इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी (IIT) मंडी और इंटरनेशनल सेंटर फॉर जेनेटिक इंजीनियरिंग एंड बायोटेक्नोलॉजी (ICGEB) के रिसर्चर्स ने हिमालय की पहाड़ियों में मिलने वाले एक पौधे में कोरोना का इलाज ढूंढ निकाला है। बुरांश का पौधा समुद्र तल से 1500-3600 मीटर की ऊंचाई पर मिलता है। ये उत्तराखंड का राज्य वृक्ष है और इसकी वहां के स्थानीय समुदाय में बेहद मान्यता है।

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हिमालयी पौधे बुरांश के अर्क से कोरोना वायरस दूर भागेगा। वैज्ञानिकों ने बुरांश की पंखुड़ियों में ऐसे फाइटोकैमिकल्स की पहचान की है जो शरीर में कोविड 19 के वायरस को रोकने में सक्षम होगा। शोध टीम के निष्कर्ष को बायोमोलिक्यूलर स्ट्रक्चर एंड डायनेमिक्स नामक जर्नल में प्रकाशित किया गया है। बता दें कि हिमालयी बुरांश का वैज्ञानिक नाम रोडोडेंड्रोन अरबोरियम है। इसकी पंखुड़ियों का सेवन स्थानीय आबादी स्वास्थ्य संबंधी कई लाभों के लिए विभिन्न रूपों में करती है। हिमाचल, उत्तराखंड और जम्मू-कश्मीर में बुरांश का पौधा काफी पाया जाता है।

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इंटरनेशनल सेंटर फॉर जेनेटिक इंजीनियरिंग एंड बायोटेक्नोलॉजी के डॉक्टर रंजन नंदा कहते हैं कि बुरांश के फाइटोकैमिकल शरीर में दो तरह से काम करते हैं। सबसे पहले ये कोरोना में मिलने वाले एक ऐसे एंजाइम से जुड़ जाते हैं, जो वायरस को अपना डुप्लीकेट बनाने में मदद करता है। इसके अलावा, ये हमारे शरीर में मिलने वाले ACE-2 एंजाइम से भी जुड़ जाते हैं। ACE-2 एंजाइम के जरिए ही वायरस हमारी बॉडी में प्रवेश करता है। वैज्ञानिकों के अनुसार, फाइटोकैमिकल की इस जुड़ने की प्रक्रिया के कारण कोरोना वायरस हमारी बॉडी के सेल्स (कोशिकाओं) को इन्फेक्ट नहीं कर पाता और संक्रमण का खतरा टल जाता है।

बुरांश की पंखुड़ियों के दूसरे फायदे

बुरांश के फूलों से बने शरबत को हृदय रोगियों के लिए बेहद फायदेमंद माना जाता है। ये पंखुड़ियां जुकाम, मांसपेशियों में दर्द, सिर दर्द और बुखार को आराम देने के काम आती हैं। स्थानीय लोग इसका उपयोग स्क्वाश और जैम बनाने में करते हैं। साथ ही, इसकी चटनी को आज भी ग्रामीण क्षेत्रों में पसंद किया जाता है।


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