रामी बौराणी, केवल एक महिला का नाम भर नहीं है, बल्कि रामी बौराणी उत्तराखण्ड के परिवेश के अनुसार वहां की महिलाओं की स्थिति को बयां करती पात्र भी है। वह उत्तराखण्डी महिला के त्याग, समर्पण, स्त्रीत्व और सतीत्व को परिभाषित करती महिला है। अर्थात रामी बौराणी में हर उत्तराखण्डी महिला को देखा और समझा जा सकता है। यह पात्र हमारे उत्तराखण्ड की महिलाओं की दृढ़ता, त्याग, समर्पण, स्त्रीत्व और सतीत्व की प्रतीक है।
रामी बौराणी कहानी उत्तराखंड की महिलाओं के त्याग व सघर्ष की कथा बताती हैं। सीता और सती सावित्री की तरह रामी भी उत्तराखंड में सतीत्व की आदर्श प्रतिमा है। रामी का पति विवाह के बाद परदेस चला जाता है। वह वर्षों तक नहीं लौटा। रामी उसकी याद में दिन काटती रहती है। इस तरह नौ साल बीत जाते हैं। एक दिन जब रामी खेत में काम कर रही थी तो एक साधु वहां से गुजरता है। वह रामी से उसका परिचय पूछता है।
परिचय पूछने के बाद वह रामी से प्रणय निवेदन करता है, लेकिन रामी नाराज हो जाती है और साधु को खरी-खोटी सुना देती है। साधु गांव में रामी के घर जाकर रामी की सास से भोजन मांगता है। तब तक रामी भी आ जाती है। रामी उसे भेजने देने के लिए राजी नहीं होती है, लेकिन साधु के क्रोध के भय तथा सास के पहने पर भोजन बना देती है। भोजन को वह पत्तल में परोश कर लाती है, लेकिन साधु कहता है कि उसे उस थाली में भोजन दो जिसमें रामी का पति खाता था। इस पर रामी और भी नाराज हो जाती है और साधु को घर से चले जाने को कहती है।
इसके बाद साधु अपना परिचय देता है कि वह रामी का ही पति है। साधु भेष के कारण रामी और उसकी सास यानी साधु की मां उसे पहचान नहीं पाए थे। रामी अपने पति को प्रसन्न हो जाती है। कुमांयू में इसी तरह की गाथा ‘रूपा’ के नाम से प्रचलित है।
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