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मन की अशुद्धियां कैसे हो जाती हैं दूर, इस कहानी को जरुर पढ़े

इंसान मन की शांति और सरलता के लिए क्या कुछ नहीं करता. घर में हवन करवाता है,भगवान् के धाम में मत्था टेकने जाता है,तीर्थ यात्रा तक का विचार बना लेता है, फिर भी उससे शांति और शुद्धता का सही अर्थ नहीं मिल पता और शायद इसीलिए वो शांति और शुद्धता को नहीं पा पाता. ऐसी ही एक कहानी है-

एक व्यापारी एक बार एक साधु के पास दीक्षा पाने की आकंक्षा से गया। साधु ने उससे कहा, “रुको, मैं थोड़ी देर बाद तुम्हारी दीक्षा शुरु करता हूं।” व्यापारी ने कई मौकों पर बार-बार साधु पर जल्द ही दीक्षा देने के लिए दबाव डाला। आखिर में साधु ने उसे दीक्षा देने से मना कर दिया और उससे दूर चला गया। पर कुछ सालों बाद वह साधु व्यापारी के पास वापस आया। इस बार उस साधु के हाथ में जो था वो देख कर व्यापारी दांग रह गया .साधुके हाथ में भिक्षा की कटोरी थी जिसमें कुछ कीचड़, बाल, मल और मूत्र था। साधु ने व्यापारी को दान देने के लिए कहा। व्यापारी अंदर से अच्छी-अच्छी मिठाईयां, खीर और हलवा दान में देने के लिए लेकर आया। उसने यह सोचकर यह सब व्यंजन तैयार किया था कि शायद साधु इस बार दीक्षा देने के लिए मान जाये। साधु ने व्यापारी से कहा, “सारी भिक्षा इस कटोरी में डाल दो।” “मैं इस गंदी कटोरी में यह सब भोजन कैसे डाल सकता हूं स्वामीजी! कृपया कर कटोरी पहले साफ करें और फिर इसे वापस लाकर मुझे दें। फिर इसमें मैं तैयार किये हुए यह स्वादिष्ट व्यंजन डाल दूंगा।” साधु ने जवाब देते हुए कहा, “मैं भी इस कटोरी की तरह वासना, क्रोध, घमंड और लालच जैसी गंदगी से भरे तुम्हारे दिल में भगवान के शुद्ध रूप को कैसे स्थापित कर सकता हूं? मैं दीक्षा की शुरुआत कैसे करुं, जब तुम्हारा मन इस कटोरी की तरह अशुद्धियों से भरा है।”

व्यापारी लज्जित हो गया और शर्म के मारे वहां से चला गया। बाद में उसने दान-पुण्य और नि:स्वार्थ सेवा से खुद को शुद्ध किया और फिर दीक्षा के लिए साधु के पास गया। रंगीन पानी उन कपड़ों में आसानी से प्रवेश कर जाता है जो पूरी तरह सफेद होते हैं। इसी तरह साधु की बातें शिष्य के दिल और दिमाग में तभी अपनी जगह बनाती है जब उनका मन शांत रहता है। वहां किसी भी प्रकार की इच्छा और आनंद का वास नहीं होता।