बात है 13 मार्च 1940 की, शाम को लंदन कैक्सटन हॉल लोगों से खचाखच करके पूरा भरा हुआ था। क्यूंकि मौका था ईस्ट इंडिया एसोसिएशन और रॉयल सेंट्रल एशियन सोसायटी की एक अहम बैठक का। और इस हॉल में कई भारतीय बैठे हुए थे और उन्ही में एक ऐसा भी था जिसके कोट में एक मोटी किताब थी, जो एक खास मकसद के साथ यहाँ लायी गयी थी। इस किताब के पन्नों को ऐसी चतुराई से काटा गया था कि उसके अन्दर एक पूरी रिवॉल्वर रखी जा सके। इसी दौरान इस भारतीय ने वह किताब खोली और जब बैठक खतम हो रही थी और लोग बाहर निकल रहे थे तो उस वक्त इस व्यक्ति ने रिवॉल्वर निकालकर बैठक के वक्ताओं में से एक माइकल ओ’ ड्वायर पर फायर कर दिया। और ड्वॉयर को दो गोलियां लगीं और मौके पर ही उसकी मौत हो गयी वो उस वक्त पंजाब के गवर्नर भी थे।
ये व्यक्ति कोई और नहीं उधम सिंह थे। जो एक राष्ट्रवादी भारतीय क्रन्तिकारी थे जिनका जन्म 26 दिसम्बर 1899 को सुनम पटियाला में हुआ था। इनके पिता का नाम टहल सिंह था और वे रेलवे क्रासिंग के में चौकीदार थे। वो 13 अप्रैल 1919 को अमृतसर में उस जलिवाला बाग़ हत्याकांड के बैसाखी के दिन में वहीँ मजूद थे। उसी समय के तात्कालिक जनरल ने बाग़ के एक दरवाज़ा को छोड़ कर सभी दरवाजों को बंद करवा दिया और निहत्थे और आम व्यक्तियों पर अंधाधुंध गोलियां बरसा दी। इस घटना में हजारों लोगों की मौत हो गयी। इस घटना के गुस्से और दुःख की आग में झेलने के कारण उधम सिंह ने बदला लेने का सोचा था। और इसी जलिवाला बाग़ हत्याकांड का बदला उन्होंने लन्दन के उस खचाखच भरे हॉल में माइकल ओ’ ड्वायर को मारकर लिया था।
इस हत्याकांड के बाद अंग्रेजों द्वारा उधम सिंह को फांसी की सजा सुनाई गयी। भारत के लोगो को जब उधम सिंह उधम सिंह के फांसी की खबर लगी तो भारत के क्रांतिकारियों के मन में अंग्रेजो के प्रति विद्रोह ओर बढ़ गया और ज्वाला की तरह फ़ैल गया। इन्ही शहीदों के बलिदान के कारण उनकी मौत के केवल 7 वर्ष बाद भारत अंग्रेजो की गुलामी से आजाद हो गया।