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बुझ गई ‘पहाड़ पर लालटेन’, मंगलेश डबराल, पैतृक घर के साथ ही उत्तराखंड में शोक की लहर

मंगलेश डबराल समकालीन हिंदी कवियों में शामिल यह शख्सियत भले अब हमारे बीच नहीं है, मगर अपनी रचनाओं के जरिये यह नाम लंबे समय तक साहित्य जगत के लोगों के बीच गुंजायमान रहेगा। साहित्य क्षेत्र से जुड़े लोगों ने उनके निधन को बड़ी क्षति बताया है। मंगलेश डबराल के जाने से साहित्य जगत में जो शून्य उपजा है उससे उबरना लंबे समय तक संभव नहीं हो पायेगा। प्रसिद्ध कवि मंगलेश डबराल का बुधवार शाम को निधन हो गया। उन्होंने अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) में आखिरी सांस ली। मंगलेश अंतिम समय में कोरोना वायरस और निमोनिया की चपेट में आने के बाद अस्पताल में भर्ती हुए थे, उनकी उम्र 72 वर्ष थी।

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जीवन भर वामपंथ दर्शन को ओढ़ने-बिछाने और जीने वाले इस खांटी साहित्यकार के स्वस्थ होने की ईश्वर से प्रार्थना उन्हें हर जानने-पहचानने वाला कर रहा था। वामपंथी साहित्यकार भी और भाजपा के वरिष्ठ नेता, सांसद और पदाधिकारी भी। एक बात पर सभी सहमत थे कि उन्होंने उत्तराखंड और पहाड़ को साहित्य के मामले में अंतरराष्ट्रीय पहचान दिलाई। प्रार्थनाएं निष्फल गईं। पहाड़ पर लालटेन की साहित्यिक रोशनी बिखेर कर आखिरकार मंगलेश डबराल चले गए। मंगलेश का जन्म टिहरी जिले के चंबा ब्लॉक के गांव काफलपानी में हुआ था। इनके पिता  मित्रानंद डबराल वैद्य थे। उत्तराखंड के मुख्यमंत्री त्रिवेन्द्र सिंह रावत ने मंगलेश डबराल के निधन पर शोक व्यक्त किया है। उन्होंने मंगलेश डबराल के निधन को हिंदी साहित्य को एक बड़ी क्षति बताते हुए  दिवंगत आत्मा की शांति व शोक संतप्त परिवार जनों को धैर्य प्रदान करने की ईश्वर से प्रार्थना की है।

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मगर साहित्यिक अभिरुचि संपन्न थे। उन्होंने गढ़वाली मुहावरों और लोकोक्तियों का एक कोश भी तैयार किया था। उन्होंने 200 साल का एक कैलेंडर भी तैयार किया था। मां सतेश्वरी देवी सामान्य गृहणी थीं। मंगलेश चार बहनों के बीच अकेले भाई थे।  पांचवीं तक ये गांव में पढ़े। बाद में इनका परिवार देहरादून आ गया। मंगलेश जी की कलम को धार देहरादून में ही मिली थी। यहां से प्रकाशित पत्र युगवाणी में उनकी पहली कविता छपी थी।

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1967 के नक्सलबाड़ी आंदोलन ने कवियों की जिस पीढ़ी की रचना की उनमें मंगलेश डबराल अग्रिम पंक्ति में शुमार रहे। उन्होंने अमृत प्रभात, जनसत्ता, सहारा, प्रतिपक्ष और शुक्रवार में साहित्यिक पत्रकारिता भी की. उनके कविता संग्रहों में ‘पहाड़ पर लालटेन’, ‘घर का रास्ता’, ‘हम जो देखते हैं’, ‘मुझे दिखा एक मनुष्य’, ‘आवाज़ भी एक जगह है’, ‘नए युग में शत्रु’ और ‘कवि ने कहा’ शामिल हैं। इसके अलावा उन्होंने ‘लेखक की रोटी’, ‘कवि का अकेलापन’ जैसे गद्य संग्रह और ‘एक बार आयोवा’ यात्रा वृतांत भी लिखा। विश्व साहित्य के कई बड़े नामों (बर्टोल्ट ब्रेष्ट, पाब्लो नेरूदा, अर्नेस्तो कार्देनल आदि) को उन्होंने हिंदी में अनूदित किया तो उनकी कविताओं का भी कई भाषाओं में अनुवाद हुआ। उन्हें साहित्य अकादमी, श्रीकांत वर्मा पुरस्कार, शमशेर वर्मा सम्मान, पहल सम्मान आदि सम्मान प्राप्त हुए।

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