आज हम जिस झील के बारे में आपको बता रहे हैं वह सदियों से नर कंकालों से भरी हुई है। आश्चर्यों से भरे अपने देश में जितने देवी-देवताओं की पूजा की जाती है, उससे कहीं ज़्यादा उनसे ज़ुड़ी कहानियां आपको सुनने को मिल जाएंगी. कुछ रोचक, तो कुछ रहस्मयी. इन कहानियों में कई ऐसी जगहों का वर्णन होता है कि जो न सिर्फ़ सुनने में, बल्कि देखने में भी दिलचस्प होती हैं. इन आकर्षक एवं मनमोहक स्थलों को देखने के लिये प्राचीन काल से इतिहासकार, वैज्ञानिक, पुरातत्ववेत्ताओं, भूगर्भ विशेषज्ञों एवं जिज्ञासु पर्यटकों के क़दम इन स्थानों में पड़ते रहे हैं।
आज हम जिस झील की बात कर रहे है वो चमोली जनपद में बेदनी बुग्याल के निकट स्थित है जिसे रूपकुंड के नाम से जाना जाता है. उत्तराखंड के उत्तर में हिमालय की अनेक चोटियों के बीच त्रिशूल की तीन चोटियां हैं। भगवान शिव का त्रिशूल माने जाने वाले हिमश्रंग त्रिशूल चोटी के बगल में ही रूपकुंड है। समुद्रतल से 4778 मीटर की ऊंचाई पर और नन्दाघुंटी शिखर की तलहटी पर स्थित रूपकुंड झील सदैव बर्फ़ की परतों से ढकी रहती है। अतः इसे ‘हिमानी झील‘ भी कहते हैं। रूपकुंड भारत के दस सबसे बड़े रहस्यों में से एक है। उत्तराखंड में 5 हजार मीटर से भी ज्यादा की ऊंचाई पर बर्फ से घिरी यह झील अनगिनत कथाएं और रहस्य समेटे हुए है। इस झील को कंकालों की भी झील कहा जाता है.
साल 1942 में भारतीय वन विभाग के एक अधिकारी ने यहां कंकालों को खोज निकाला था. वन विभाग के अधिकारी यहां दुर्लभ फ़ूलों की खोज करने गए थे. एक रेंजर अनजाने में झील के भीतर किसी चीज़ से टकराया. देखा तो वहां कंकाल था. खोज की गई तो रहस्य और गहरा गया. झील के आस पास और गहराई में नरकंकालों का ढेर मिला. उनके साथ चल रहे मज़दूर तो इस दृश्य को देखते ही भाग खड़े हुए. इसके बाद शुरू हुआ वैज्ञानिक अध्ययन का दौर. 1950 में कुछ अमेरिकी वैज्ञानिक नरकंकाल अपने साथ ले गए. खोपड़ियों के फ्रैक्चर के अध्ययन के बाद यह निर्धारित किया कि लोग बीमारी से नहीं बल्कि अचानक से आये ओला आंधी से मरे थे। ये ओले, क्रिकेट के गेंदों जितने बड़े थे और खुले हिमालय में कोई आश्रय न मिलने के कारण सभी मर गये।