अरसा वो नाम जिसे सुनते ही सभी गढ़वालियों के मुहं में पानी आ जाता है क्यूंकि इसका स्वाद ही ऐसा है कि कोई चाहकर भी नहीं भूल सकता है, आपको बता दें ये अरसा नाम की स्वादिष्ट मिठाई केवल गढ़वाल में ही बनती है न तो ये कुमाओं में देखने को मिलती है न ही हिमांचल में और न ही पड़ोसी देश नेपाल में। तो आजतक हम अरसे खाते तो आये हैं लेकिन कभी सोचा है क्या कि आखिर ये अरसा आया कहाँ से और केवल गढ़वाल में ही कैसे मिलता है? तो आज हम आपको यहाँ अरसे के पीछे की पूरी कहानी बता रहे हैं| जिस अरसा को हम और आप गढ़वाल में खाते हैं, उसे दक्षिण भारत में अरसालु नाम से पुकारते हैं। अब आप सोच रहे होंगे कि आखिर दक्षिण भारत का गढ़वाल से क्या रिश्ता है?
तो अब आपको इस पूरी कहानी से रूबरू कराते हैं कि आखिर दक्षिण भारत का गढ़वाल से क्या रिश्ता है| कहा जाता है कि जगदगुरू शंकराचार्य ने केदारनाथ और बद्रीनाथ मंदिरों का निर्माण करवाया था। इसके साथ-साथ उन्होंने गढ़वाल में कई अन्य मंदिरों का निर्माण भी करवाया था। अब इस बात से तो हम सब लोग भली-भांति परिचित हैं कि इन मंदिरों में पूजा करने के लिए दक्षिण भारत के ही ब्राह्मणों को रखा जाता है। माना जाता है कि नवीं सदी में दक्षिण भारत से ये ब्राह्मण गढ़वाल में अरसालु लेकर आए थे। दरअसल अरसा काफी दिनों तक चल जाता है, इसलिए वो पोटली भर-भरकर अरसालु लाया करते थे। धीरे धीरे इन ब्राह्मणों ने ही स्थानीय लोगों को ये कला सिखाई।
इसी का परिणाम है कि गढ़वाल में ये अरसालु अरसा बन गया था। 9वीं सदी से अरसालु लगातार चलता आ रहा है, यानी इतिहासकारों की मानें तो बीते 1100 साल से गढ़वाल में अरसा एक मुख्य मिष्ठान और परंपरा का सबूत रहा है। दोनों जगह बनने वाले इस मिष्ठान में फर्क ये है कि गढ़वाल में गन्ने का गुड़ इस्तेमाल होता है और कर्नाटक में खजूर का गुड़ इस्तेमाल किया जाता है। इसी कारण से दोनों जगह स्वाद में थोडा अंतर पाया जाता है, अरसा तमिलनाडु, केरल, आंध्र, उड़ीसा और बंगाल में भी पाया जाता है कहीं इसे अरसालु कहते हैं और कहीं अनारसा। अरसा केवल हमारी संस्कृति ही नहीं बल्कि शरीर के लिए बेहद की पौष्टिक आहार है। शरीर में शक्ति और ऊर्जा का प्रवाह बढ़ाने के लिए इसका इस्तेमाल होता है।