फूलदेई छम्मा देई, दैणी द्वार भर भकार। यानी यह देहरी फूलों से सजी रहे। घर खुशियों से भरा हो। सबकी रक्षा हो। अन्न के भंडार सदैव भरे रहे। उत्तराखंड में इसे फूल संक्रांति के तौर पर मनाया जाता है। इस दिन घरों की देहरी को फूलों से सजाया जाता है। घर-मंदिर की चौखट का तिलक करते हुए ‘फूलदेई छम्मा देई’ कहकर मंगलकामना की जाती है। यह सब करते हैं घर व आस-पड़ोस के बच्चे। जिन्हें फुलारी कहा गया है। फुलारी यानी जो फूल लिए आ रहे हैं।
लोक पर्व फूलदेई वसंत ऋतु के आगमन का संदेश देता है। नौकरी, पढ़ाई व दूसरे वजहों से अलग होते परिवारों में प्रकृति संरक्षक से जुड़े इस पर्व को मनाने की परंपरा पिछले कुछ वर्षों में कम हुई है। विशेषकर नगरीय क्षेत्रों में पर्व अब परंपरा निभाने तक सीमित होता जा रहा है। फूलदेई के लिए बच्चे हाथों में टोकरी, थाल लिए खेतों की ओर निकल पड़ते हैं। ताकि देहरी सजाने को वह चुन सकें, सरसों, फ्योंली व आड़ू-खुमानी के ताजा फूल। यह माहौल बच्चों को प्रकृति से जुडऩे व उसमें होने वाले बदलाव को समझने का मौका देता है। जरूरी नहीं कि पर्व गांव में ही मनाया जाए, जहां व जिस परिवेश में हैं, अपने लोकपर्व को अवश्य मनाना चाहिए।
लोकगीतों में मिलती है पर्व की छलक
फूलदेई की झलक लोकगीतों में भी दिखती है। उत्तराखंडी लोकगीतों का फ्यूजन तैयार करने वाले पांडवाज ग्रुप ने फुल्वारी गीत में फुलारी को सावधान करते हुए लिखा है- चला फुलारी फूलों को, सौदा-सौदा फूल बिरौला। भौरों का जूठा फूल ना तोड्या। म्यारयूं का का जूठा फूल ना लायां। अर्थात चलो फुलारी, ताजा फूल चुनने चलते हैं। ध्यान रखना भौंरों के जूठे किए व मधुमक्खी की चखे फूलों को न तोडऩा।
गढ़वाली में फुलारी बच्चे फूल डालते हुए गाते हैं –
ओ फुलारी घौर।
झै माता का भौंर ।
क्यौलिदिदी फुलकंडी गौर ।
डंडी बिराली छौ निकोर।
चला छौरो फुल्लू को।
खांतड़ि मुतड़ी चुल्लू को।
हम छौरो की द्वार पटेली।
तुम घौरों की जिब कटेली।