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उत्तराखंड में स्थित विश्व का इकलौता मन्दिर जहां रात भर नंगे पांव कठिन चढाई चढकर प्रात: काल दर्शन होते हैं

यह वह जगह है जहाँ पहुच कर भक्तों की हर मनोकामना पूर्ण हो जाती है। यहाँ का इतिहास बहुत ही आश्चर्यजनक है। समुद्र तल से ऊंचाई 2520 मीटर है। दीबा ने इस स्थान पर तब अवतार लिया जब गोरखाओं ने पट्टी खाटली पर आक्रमण किया था। दीबा ने यहाँ सबसे पहले पुजारी के सपने में दर्शन दिए और अपना यह स्थान बताया। फिर इसी स्थान पर उन्होंने इनकी स्थापना कर दी। लेकिन यहाँ तक पहुंचना इतना आसान भी नहीं था क्योंकि यह मार्ग सीधा नहीं बल्कि काफी टेढ़ी-मेढ़ी गुफा से होकर उन्हें तय करना था। आज भी जिस पर्वत की चोटी पर माता की मूर्ति स्थापित है उस स्थान के नीचे गुफा है किन्तु अब वह पूर्ण रूप से ढक चुकी है। उस वक़्त यहाँ पर माता साक्षात् थी और उनके साथ एक सेवक था। वह इसी स्थान से ही सभी लोगों को गोरखाओं के आने की सूचना दिया करती थी। इस स्थान पर किसी की नज़र नहीं जाती थी किन्तु वो सभी को यहाँ से देख सकती थी। और आज भी यहाँ पहूंच कर यदि आप देखो तो ऐसा ही है, यहाँ से चारों तरफ नजर जाती है लेकिन दूर-दूर तक कहीं से भी यहाँ नजर नहीं पहुंचती।


गढवाल पर गोरखाओं ने आक्रमण कर राज्य किया था । गढवाल के इतिहास में गोरख्याली अत्याचार प्रसिद्ध है।
यहाँ पर उस वक़्त गोरखा लोग यहाँ की जनता को जिन्दा ही काट दिया करते या ओखलियों कूट दिया करते थे अभी भी वो ओखलियां मुझसे कुछ दूरी पर भी हैं। परन्तु माता ही उनसे उनकी रक्षा किया करती थी। और अंत में माता ने गोरखाओं का संहार किया। पट्टी खाटली तथा गुजरू को उनसे आज़ाद करवाया। उसके पश्चात इस स्थान पर जिस स्थान से माता लोगों को गोरखाओ के आने की सूचना दिया करती थी, उस स्थान पर एक ऐसा पत्थर था कि उसे जिस दिशा की और घुमा दिया जाता था उसी दिशा में बारिश होने लगती थी। इस स्थान का यहाँ की भाषा में नाम धवड़या (आवाज लगाना) है।


दीबा मंदिर की मान्यता के अनुसार दीबा माँ के दर्शन करने के लिए रात को ही चढाई चढ़कर सूर्य उदय से पहले मंदिर पहुंचना होता है। वहां से सूर्य उदय के दर्शन बहुत शुभ माना जाता है वहां से उगता सूर्य किसी को शिशु की तरह दीखता है फिर घूमती हुई कांसे की थाली की तरह दिव्य दीखता है। यहाँ की खाशियत ये भी है कि अगर कोई यात्री अछूता( परिवार में मृत्यु या नए बच्चे के जन्म) है और अभी शुद्धि नही हुई है तो वह कितना भी प्रयास क्यों न कर ले यहाँ नहीं पहुँच सकता है। और कोई कितना भी बूढ़ा होया बच्चा हो चढ़ाई में कोई भी समस्या नही होती है। यहां एक स्थान पर जल है जिसका एक लोटा पानी अनेकों की प्यास बुझा देता है मतलब फारा होता है।


कहा जाता है कि यहाँ पर दीबा माँ भक्तों को सफ़ेद बालों वाली एक बूढी औरत के रूप में दर्शन दे चुकी है। यहाँ पर ऐसी मान्यता है कि इस मंदिर के आस-पास के पेड़ मात्र भंडारी जाति के लोग ही काट सकते हैं, यदि कोई और काटे तो पेड़ो से खून निकलता है। हमारे विद्यालय के ठीक सामने ही दीबा माता का पहाड़ है। इस मंदिर के बारे में और बताने के लिए कई चश्मदीदों को फोन कर रहा हूं कोई नहीं उठा रहा।

(श्री सचिदानंद सेमवाल जी की पोस्ट से)


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