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उत्तराखंड में क्यों धधक रहे हैं जंगल? आप भी जानिए सारे सवालों के जवाब

उत्तराखंड वन विभाग के अनुसार सोमवार, 5 अप्रैल को प्रदेश के जंगलों में 45 जगह आग लगी हुई है और इससे 68.7 हेक्टेयर क्षेत्र प्रभावित हुआ है। एक अक्टूबर, 2020 से अब तक जंगलों में आग के 667 मामले दर्ज किए गए हैं और इससे 1359.83 हेक्टेयर क्षेत्र प्रभावित हुआ है। उत्तराखंड के जंगलों में आग हर साल आने वाली ऐसी आपदा है जिसमें इंसानी दखल मुख्य कारण माना गया है। हर साल सैकड़ों हेक्टेयर जंगल आग से ख़ाक हो जाते हैं और इससे जैव विविधता, पर्यावरण और वन्य जीवों का भारी नुक़सान होता है।

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उत्तराखंड के जंगलों में हर साल क्यों लगती है आग?

जंगल में आग लगने की वजह 98 फ़ीसदी मानव जनित होती है। अक्सर ग्रामीण जंगल में ज़मीन पर गिरी पत्तियों या सूखी घास में आग लगा देते हैं ताकि उसकी जगह पर नई घास उग सके। यह आग भड़क जाने पर बेक़ाबू हो जाती है, जैसा इस साल भी दिख रहा है। पिछले साल कोरोना वायरस के कारण लगे लॉकडाउन के चलते जंगलों में इंसानी गतिविधियां कम रहीं और इसलिए जंगलों में लगी आग की घटनाओं में भी रिकॉर्ड कमी देखने को मिली। चीड़ के जंगलों में सबसे अधिक आग लगती है क्योंकि चीड़ की पत्तियां (पिरुल) और छाल से निकलने वाला रसायन, रेज़िन, बेहद ज्वलनशील होता है। जानबूझकर या ग़लती से ही अगर इन जंगलों में आग लग जाती है तो वह बेहद तेज़ी से भड़कती है। उत्तराखंड में 16-17 फ़ीसदी जंगल चीड़ के हैं और इन्हें जंगलों की आग के लिए मुख्यतः ज़िम्मेदार माना जाता है।

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उत्तराखंड में साल 2020 में फ़ायर सीज़न को चार महीने के बजाय साल भर के लिए घोषित कर दिया गया था और इसकी वजह सर्दियों में वनाग्नि की कई गुना ज़्यादा घटनाएं होना था। एक अक्टूबर, 2020 से अब तक उत्तराखंड के जंगलों में आग के 667 मामले दर्ज किए गए और इससे 1359।83 हेक्टेयर क्षेत्र प्रभावित हुआ। इस साल जंगलों में लगी आग कई जगह गांवों तक पहुंच गई है और राज्य सरकार को इस पर काबू पाने के लिए केंद्र से मदद मांगनी पड़ी है। इस बार जंगलों में आग लगने की वजह सर्दियों में बारिश का 65 फ़ीसदी तक कम होना रहा। इसकी वजह से जंगलों में नमी कम रही और मार्च में ही वह मौसम बन गया जो अप्रैल अंत और मई में होता है। इसके अलावा होली के बाद तेज़ हवाएं चलने से भी आग तेज़ी से भड़की और गांवों तक पहुंच गई।

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बड़े पैमाने पर जो ‘फ़्यूल’ (चीड़ की पत्तियां और रेज़िन) जंगल में पड़ा है, उसे हटाना तो संभव नहीं है, लेकिन हम रास्तों से, संवेदनशील जगहों से उसे हटा सकते हैं, फ़ायर लाइन साफ़ कर सकते हैं। इसे साफ़ करने के लिए राज्य सरकार पिरुल (चीड़ की पत्तियों) से बिजली-कोयला बनाने के जो प्रोजेक्ट चला रही है, वह पर्याप्त नहीं हैं। इसके लिए दीर्घकालिक योजना बनानी होगी जिसका अभाव साफ़ दिखता है। आग को रोकने में नाकामयाबी या कमी के लिए संसाधनों की कमी को दोष नहीं दिया जा सकता। वह कहते हैं ऑस्ट्रेलिया, अमेरिका, रूस और यूरोपीय देशों के पास हमसे कई गुना ज़्यादा संसाधन हैं, लेकिन जंगलों में आग वहां भी लगती है और सैकड़ों हेक्टेयर जंगल नष्ट हो जाते हैं। आग ऐसी चीज़ है जो एक सीमा के बाद नियंत्रित नहीं हो सकती है।

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हेस्को के संस्थापक पद्मश्री डॉक्टर अनिल प्रकाश जोशी कहते हैं कि जंगल अकेले वन विभाग के भरोसे नहीं बचाए जा सकते। जंगल को बचाना है तो अपने फ़ॉरेस्ट ईको-सिस्टम को समझना होगा। चाहे वह चीड़ के जंगल हों या दूसरे वन, सभी जगह रेन वाटर हार्वेस्टिंग की जानी चाहिए। अगर जंगल में और आस-पास नमी होगी तो स्थानीय वनस्पतियां खुद ही फलने-फूलने लगेंगी और उससे भूजल भी बढ़ेगा। उत्तराखंड ही नहीं दुनिया भर में वनाग्नि की बड़ी वजह मानवीय दखल माना जाता है। एक शोध का हवाला देते हुए डॉक्टर वीके धवन कहते हैं कि पश्चिमी देशों में आग लगने की 80 फ़ीसदी कारण मानव जनित होते हैं तो भारत में यह 98 फ़ीसदी हैं।

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लेकिन डॉक्टर अनिल प्रकाश जोशी कहते हैं कि जंगलों में आग भड़कने की मुख्य वजह स्थानीय लोगों का जंगलों से संबंध ख़त्म होना है। वह कहते हैं कि वन कानूनों के पुनरीक्षण की ज़रूरत है जिनकी वजह से लोगों का जंगलों पर अधिकार और जुड़ाव ख़त्म हो गया है। डॉक्टर जोशी कहते हैं कि गांवों को जंगलों की ज़्यादा ज़िम्मेदारी दी जानी चाहिए, अधिकार के साथ ताकि आग लगते ही उसे बुझाने के लिए कोशिशें भी शुरू हो जाएं और वन विभाग का इंतज़ार न हो।

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