ये पूरा वाकया है 9 अगस्त 2017 जब पूरा भारत 15 अगस्त की तैयारियों में डूब हुआ था उन दिनों देश का तिरंगा फिर से सड़क पर छोटी छोटी दुकानों में बिकने के लिए तैयार था, एक रुपये का तिरंगा, दो रुपये का तिरंगा 50 रुपये से लेकर हजारों रुपये तक का तिरंगा दुकानों पर मिल रहा था। 15 अगस्त गुजर जाने के बाद उस तिरंगे की कीमत पूरे देश के लिए जहाँ एक ओर बहुत कम हो जाती है वहीं उस जवान की देश के तिरंगे के लिए मात्र 21 साल में बलिदान की कोई भी कीमत नहीं हो सकती है। यहाँ बात हो रही है पिथोरागढ़ जिले के गंगोलीहाट के सुगड़ा गांव के रहने वाले पवन सिंह सुगड़ा की, 21 साल का इस बच्चे के दिल में ऐसा कौन सा जूनून था जोकि वो सेना में भर्ती हो गया था? क्यूंकि उसके घर में तो हर कोई था न पैसों की तंगी न खाने पीने की।
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फिर ऐसी क्या बात हो सकती है जब 19 साल का एक बच्चा सेना में भर्ती हो जाता है, वो बच्चा 19 साल की छोटी से उम्र में सेना में भर्ती हुआ और दो साल बाद ही देश के लिए सर्वोच्च बलिदान देकर चला गया। उस परिवार का दर्द आज भी जिगर को सालता है, जिसने अपना जवान बेटा खो दिया| पवन 2016 में सेना में भर्ती हुए थे और बचपन से ही उनमें देशभक्ति का जुनून सवार था। स्कूली शिक्षा इंटर विवेकानंद गंगोलीहाट से पूरी करने के बाद जब पवन पिथौरागढ् महाविद्यालय से बीए सेकंड ईयर में पढ़ रहे थे, उसी समय वो सेना में भर्ती हो गये थे। पवन सिंह के बड़े भाई धीरज सुगड़ा हल्द्वानी कोतवाली में कार्यरत हैं जबकि उनके पिता भी खुद आर्मी से रिटायर हैं।
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पवन सिंह सुगड़ा 20 कुमाऊं रेजीमेंट के वीर सपूत थे तब 9 अगस्त 2017 को ही खबर आई थी कि पवन जम्मू कश्मीर के पुंछ में शहीद हो गए। जम्मू कश्मीर के बलनोई क्षेत्र में पाकिस्तानी आतंकियों की तरफ से स्नाइपर शॉट दागा गया था। पवन इसका निशाना बन गए दरअसल इससे ठीक पहले भारतीय सेना ने आतंकियों के सगरना अबु दुजाना को ढेर किया था। अचानक आतंकियों की तरफ से स्नाइपर शॉट दागा गया और ये सीधा पवन को लगा। उत्तराखंड का लाल धरती पर गिर गया और मातृभूमि को चूमकर शहीद हो गया। सभी के मन में पाकिस्तान के खिलाफ भारी गुस्सा था, शहीद के पार्थिव शरीर पर उनके ताऊ प्रताप सिंह ने तिरंगा चढ़ाया, बाद में प्रताप सिंह और शहीद के चचेरे भाई किशन सिंह ने चिता को मुखाग्नि दी। पवन सिंह सुगड़ा एक महीने पहले ही छुट्टियां बिता कर जम्मू-कश्मीर में ड्यूटी करने गए थे ऐसे में उनकी यादें लोगों के ज़हन में ताज़ा थीं और गांव में लोग उन्हें याद कर आज भी रोते रहते हैं।