गढ़वाल राइफल्स के पराक्रम की गाथा भारत ही नहीं बल्कि पूरा विश्व गाता है क्यूंकि ये जवान जिस बहादुरी और समर्पण से देश सेवा का कार्य करते हैं और जिस तरह से युद्ध में दुश्मनों के छक्के छुड़ाते हैं उस तरह की कोई अन्य मिसाल दुनियां में देखने को नहीं मिलती है। गढ़वाल राइफल्स के वीर जवानों की बहादुरी ही वो कारण है जो पूरी दुनियां में इसका नाम बड़े अदब से लिया जाता है इन वीरों की ऐसी ही बहादुरी का किस्सा है जो आज से ठीक 53 साल पहले यानी 16 सितम्बर 1965 को देखने को मिला था। बात है भारत और पाकिस्तान के बीच साल 1965 में हुए युद्ध की जब दुश्मनों ने भारत की सीमा में धोके से घुसपैठ करने की कोशिश शुरू कर दी थी।
उस युद्ध में भारतीय फौज दुश्मनों का बॉर्डर पर माकूल जवाब दे रही थी और वहीँ दूसरी ओर गढ़वाल राइफल्स के जवान इस युद्ध में सबसे आगे से भारतीय फौज की अगुआई कर रहे थे। इस युद्ध के दौरान एक मौका ऐसा आया जब आठवीं गढ़वाल राइफल्स के जवान पाकिस्तान की सीमा में सबसे अन्दर तक घुस गये थे और पाकिस्तान सीमा में स्थित बुटुर डोंगराडी नाम की जगह पर भारतीय तिरंगा लहरा दिया था। बुटुर डोंगराडी पर कब्जे के दौरान आठवीं गढ़वाल राइफल्स और पाकिस्तान फौज के बीच जबरदस्त युद्ध हुआ था और इस दौरान आठवीं गढ़वाल राइफल्स ने अपने 2 अधिकारी और 40 जवान गंवा दिए थे इसके अलावा इस दौरान गढ़वाल राइफल्स के 3 अधिकारी, 4 जूनियर अधिकारी और 89 जवान घायल हो गये थे बावजूद इसके आठवीं गढ़वाल राइफल्स ने पाकिस्तान के बुटुर डोंगराडी नाम की जगह पर कब्ज़ा कर लिया था।
यह लड़ाई भारत के सैन्य इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में दर्ज है, आठवीं गढ़वाल राइफल्स को पाकिस्तान सीमा में सबसे अन्दर घुसने और सबसे लंबे समय तक रुकने का श्रेय प्राप्त है। बटालियन की बहादुरी से खुश होकर आठवीं गढ़वाल राइफल्स को बुटुर डोंगराडी युद्ध सम्मान से नवाजा गया था, इस बात को आज 53 साल पूरे हो गये हैं और तबसे लेकर अब तक हर साल बड़े धूमधाम से पूर्व सैनिक मिलकर इस दिन को ख़ास बनाते हैं और मिलकर उस युद्ध के दौरान हुई घटना को याद करके गर्व महसूस करते हैं।